26 Sep, 2022
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Organic Farming
मूंग
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मध्यप्रदेश में मूंग ग्रीष्म एवं खरीफ दोनो मौसम की
कम समय में पकने वाली एक मुख्य दलहनी फसल है। इसके दाने का प्रयोग मुख्य रूप से
दाल के लिये किया जाता हैजिसमें24-26% प्रोटीन,55-60% कार्बोहाइड्रेट
एवं 1.3%वसा होता है।
दलहनी फसल होने के कारण इसकी जड़ो में गठाने पाई जाती है जो कि वायुमण्डलीयनत्रजन
का मृदा में स्थिरीकरण (38-40 कि.ग्रा. नत्रजन प्रति हैक्टयर) एवं फसल की खेत से कटाई उपरांत जड़ो एवं
पत्तियो के रूप में प्रति हैक्टयर1.5टन जैविक पदार्थ भूमि में छोड़ा जाता है जिससे भूमि में जैविक कार्बन का
अनुरक्षण होता है एवंमृदा की उर्वराशक्तिबढाती है। मध्यप्रदेश में मूंग की फसल
हरदा, होशंगाबाद, जवलपुर, ग्वालियर, भिण्ड, मुरेना, श्योपुर एवं शिवपुरी जिले में अधिक मात्रा में उगाया जाता है।मध्यप्रदेश की
औसत उत्पादकता लगभग 350किलोग्राम प्रति हैक्टयर है जो कि बहुत कम है,जिसके बढने की प्रवलसम्भावनायें है। अतः कृषक भाई
उन्नत प्रजातियो एवं उत्पादन की उन्नत तकनीक को अपनाकर पैदावार को 8-10 क्विंटल प्रति हैक्टयर तक प्राप्त कर सकते है।
जलवायु-
मूंग के लिए नम एंव गर्म जलवायु की आवश्यकता होती है। इसकी खेती वर्षा ऋतु में की जा सकती है। इसकी वृद्धि एवं विकास के लिए 25-32 °C तापमान अनुकूल पाया गया हैं। मूंग के लिए 75-90 से.मी.वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रउपयुक्त पाये गये है। पकने के समय साफ मौसम तथा 60% आर्दता होना चाहिये। पकाव के समय अधिक वर्षा हानिप्रद होती है। भूमि- मूंग की खेती हेतु दोमट से बलुअरदोमटभूमियाँ जिनका पी. एच. 7.0 से 7.5 हो, इसके लिए उत्तम हैं। खेत में जल निकास उत्तम होना चाहिये। |
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खरीफ की फसल हेतुएक गहरी जुताई मिट्टी पलटने वाले
हल से करना चाहिए एंववर्षाप्रराम्भ होते ही 2-3 बार देशी हल या कल्टीवेटर से जुताई कर खरपतवार रहित
करने के उपरान्त खेत में पाटा चलाकर समतल करें। दीमक से बचाव के लिये
क्लोरपायरीफॉस1.5 % चूर्ण 20-25 कि.ग्रा/है. के
मान से खेत की तैयारी के समय मिट्टी में मिलाना चाहिये।
ग्रीष्मकालीन मूंग की खेती के लिये रबी फसलों के कटने के तुरन्त बाद खेत की तुरन्त जुताई कर 4-5 दिन छोड कर पलेवा करना चाहिए। पलेवा के बाद 2-3 जुताइयाँ देशी हल या कल्टीवेटर से कर पाटा लगाकर खेत को समतल एवं भुरभुरा बनावे। इससे उसमें नमी संरक्षित हो जाती है व बीजों से अच्छा अंकुरण मिलता हैं। |
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खरीफ मूंग की बुआई का उपयुक्त समय जून के अंतिम
सप्ताह से जुलाई का प्रथम सप्ताह है एवं ग्रीष्मकालीन फसल को 15 मार्च तक बोनी कर देना चाहिये। बोनी में विलम्ब
होने पर फूल आते समय तापक्रम वृद्धि के कारण फलियाँ कम बनती हैं अथवा बनती ही
नहीं है इससे इसकी उपज प्रभावित होती है।
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मँग के लिये 8 किलो नत्रजन20 किलो स्फुर, 8 किलो पोटाश एवं 8 किलो गंधक प्रति एकड़ बोने के समय प्रयोग करना
चाहिये।
मध्य प्रदेश लिये उन्नत जातियों का चयन निम्नलिखित जातियों का चुनाव उनकी विशेषताओं के आधार पर करना चाहिये। |
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खरीफ में कतार विधि से बुआई हेतु मूंग20 कि.ग्रा./है. पर्याप्त होता है। बसंत अथवा
ग्रीष्मकालीन बुआई हेतु 25-30 कि.ग्रा/है. बीज की आवश्यकता पड़ती है। बुवाई से पूर्व बीज को कार्बेन्डाजिम
+ केप्टान (1 + 2) 3 ग्राम दवा
प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें। तत्पश्चात इस उपचारित बीज को विशेष
राईजोबियमकल्चर की 5 ग्राम. मात्रा प्रति किलो बीज की दर से परिश¨धित कर बोनी करें।
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वर्षा के मौसम में इन फसलों से अच्छा उत्पादन
प्राप्तकरने हेतु हल के पीछे पंक्तियोंअथवा कतारों में बुआई करना उपयुक्त रहता
है। खरीफ फसल के लिए कतार से कतार की दूरी 30-45 से.मी. तथा बसंत (ग्रीष्म) के लिये20-22.5 से.मी. रखी जाती है। पौधे से पौधे की दूरी 10-15 से.मी. रखते हुये4 से.मी. की गहराई परबोना चाहिये।
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खाद एवं उर्वरक की मात्रा किलोग्राम /हे. होनी
चाहिये।
नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाशउर्वरको की पूरी मात्रा बुबाई के
समय 5-10 सेमी. गहरी कूड़
में आधार खाद के रूप में दें।
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प्रायः वर्षा ऋतु में मूंग की फसल को सिंचाई की
आवश्यकता नहीं पडती है फिर भी इस मौसम में एक वर्षा के बाद दूसरी वर्षा होने के
बीच लम्बा अन्तराल होने पर अथवा नमी की कमी होने पर फलियाँ बनते समय एक हल्की
सिंचाई आवश्यक होती है। बसंत एवं ग्रीष्म ऋतु में 10-15 दिन के अन्तराल पर सिंचाई की आवश्यकता होती है। फसल
पकने के 15 दिन पूर्व
सिंचाई बंद कर देना चाहिये। वर्षा के मौसम में अधिक वर्षा होने पर अथवा खेत में
पानी का भराव होने पर फालतू पानी को खेत से निकालते रहना चाहिये, जिससे मृदा में वायु संचार बना रहता है।
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मूंग की फसल में नींदा नियंत्रण सही समय पर नही
करने सेफसल की उपज में 40-60 प्रतिशत तक की कमी हो सकती है। खरीफ मौसम में फसलों में सकरी पत्ती वाले
खरपतवार जैसेः सवा (इकाईनाक्लोक्लोवाकोलाकनम/ क्रुसगेली) दूब घास
(साइनोडॉनडेक्टाइलोन) एवं चैडी पत्ती वाले पत्थरचटा (ट्रायन्थिमामोनोगायना), कनकवा (कोमेलिनावेंघालेंसिस), महकुआ (एजीरेटमकोनिज्वाडिस), सफेद मुर्ग (सिलोसियाअर्जेसिया), हजारदाना (फाइलेन्थसनिरूरी), एवं लहसुआ (डाइजेराआरवेंसिस) तथा मोथा
(साइप्रसरोटन्डस, साइप्रसइरिया) आदि वर्ग के खरपतवार बहुतायत निकलते है। फसल व खरपतवार की
प्रतिस्पर्धा की क्रान्तिक अवस्था मूंग में प्रथम 30 से 35 दिनों तक रहती है। इसलिये प्रथम निदाई-गुडाई15-20 दिनों पर तथा द्वितीय 35-40 दिन पर करना चाहियें। कतारों में ब¨ई गई फसल में व्हील ह¨ नामक यंत्र द्वारा यह कार्य आसानी से किया जा सकता
है।चूंकि वर्षा के मौसम में लगातार वर्षा होने पर निदाई गुडाई हेतु समय नहीं मिल
पाता साथ ही साथ श्रमिक अधिक लगने से फसल की लागत बढ जाती है। इन परिस्थितियों
में नींदा नियंत्रण के लिये निम्न नींदानाशक रसायन का छिड़काव करने से भी खरपतवार
का प्रभावी नियंत्रण किया जा सकता है।खरपतवार नाशक दवाओ के छिडकाव के लिये हमेशा
फ्लैट फेन नोजल का ही उपयोग करें।
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मूंग की फसल में प्रमुख रूप से फली भ्रंग, हरा फुदका, माहू, तथा कम्बल कीट का प्रकोप होता है। पत्ती भक्षक कीटों के नियंत्रण हेतु
क्विनालफास की 1.5 लीटर या मोनोक्रोटोफॉस की 750 मि.ली. तथा हरा फुदका, माहू एवं सफेद मक्खी जैसे रसचूसककीटो के लिए डायमिथोएट1000 मि.ली. प्रति 600 लीटरपानी या इमिडाक्लोप्रिड17.8 एस.एल. प्रति 600 लीटर पानी में 125 मि.ली. दवा के हिसाब से प्रति हेक्टेयरछिड़काव करना
लाभप्रद रहता है।
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जब फलियाँ काली पड़कर पकने लगे तब तुड़ाई करना
चाहिये। इन फलियों को सुखाकर बैलों के दावन से या लकड़ी द्वारा पीटकर गहाई करें।
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मूंग में अधिकतर पीत रोग, पर्णदाग तथा भभूतिया रोग प्रमुखतया आते है। इन
रोगों की रोकथाम हेतु रोग निरोधक किस्में हम 1, पंत मूंग1, पंतमूंग2, टी.जे.एम -3, जे.एम. 721 आदि का उपयोग करना चाहिये। पीत रोग सफेद मक्खी द्वारा फैलता है इसके
नियंत्रण हेतु मेटासिस्टॉक्स25 ईसी750 से 1000 मि.ली. का 600लीटर पानी में घोल कर प्रति हैक्टर छिड़काव 2 बार 15 दिन के अंतराल पर करे। फफूंद जनितपर्णदाग (अल्टरनेरिया/सरकोस्पोरा/माइरोथीसियस)
रोगों के नियंत्रण हेतु डायइथेनएम. 45, 2.5 ग्रा/लीटर या कार्वान्डाजिम$ डायइथेनएम. 45 की मिश्रित दवा बना कर 2.0 ग्राम/लीटर पानी में घोल कर वर्षा के दिनों को छोड़ कर खुले मौसम में छिड़काव
करें। आवश्यकतानुरूप छिड़काव 12-15 दिनों बाद पुनः करें।
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मूंग कम अवधि में तैयार होने वाली दलहनी फसल हैं
जिसे फसल चक्र में सम्मलित करना लाभदायक रहता है। मक्का-आलू-गेहूँ -मूंग(बसंत),ज्वार+ मूंग -गेहूँ , अरहर + मूंग -गेहूँ , मक्का +मूंग -गेहूँ , मूंग -गेहूँ । अरहर की दो कतारों के बीच मूंग की दो
कतारेअन्तः फसल के रूप में बोना चाहिये। गन्ने के साथ भी इनकी अन्तरवर्तीय खेती
सफलता पूर्वक की जा सकती है।
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मूंग की फसल क्रमशः 65-70दिन में पक जाती है। अर्थात जुलाई में बोई गई फसल
सितम्बर तथा अक्टूबर के प्रथम सप्ताह तक कट जाती है। फरवरी-मार्च में बोई गई फसल
मई में तैयार हो जाती है। फलियाँ पक कर हल्के भूरे रंग की अथवा काली होने पर
कटाई योग्य हो जाती है। पौधें में फलियाँ असमान रूप से पकती हैं यदि पौधे की सभी
फलियों के पकने की प्रतीक्षा की जाये तो ज्यादा पकी हुई फलियाँ चटकने लगती है
अतः फलियों की तुड़ाई हरे रंग से काला रंग होते ही 2-3 बार में करें एंव बाद में फसल को पौधें के साथ काट
लें। अपरिपक्वास्था में फलियों की कटाई करने से दानों की उपज एवं गुणवत्ता दोनो
खराब हो जाते हैं। हॅंसिए से काटकर खेत में एक दिन सुखाने के उपरान्त खलियान में
लाकर सुखाते है। सुखाने के उपरान्त डडें से पीट कर या बैंलो को चलाकर दाना अलग
कर लेते है वर्तमान में मूंग एवं उड़द की थ्रेसिंग हेतु थ्रेसर का उपयोग कर गहाई
कार्य किया जा सकता है।
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मूंग की खेती उन्नत तरीके से करने पर 8-10 क्विंटल/है. औसत उपज प्राप्त की जा सकती है।
मिश्रित फसल में 3-5 क्विंटल/है. उपज प्राप्त की जा सकती है। भण्ड़ारण करने से पूर्व दानों को
अच्छी तरह धूप में सुखाने के उपरान्त ही जब उसमें नमी की मात्रा 8-10% रहे तभी वह भण्डारण के योग्य रहती है।
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